पलायन से वीरान होते पहाड़
पलायन क्या है - क्या पहाड़ की कठिन जिंदगी से मुक्ति है पलायन
आज उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में कठिन जिंदगी से मुक्ति की जिंदगी को पलायन का नाम दिया जाता है इसके साथ साथ कई कारणों में से एक मुख्य कारण शिक्षा का स्तर भी है, आज शिक्षा का स्तर पहाड़ों पर उतना अच्छा नहीं माना जाता जितना की शहरों में मानते है, या यूँ कहें कि पहले के मुकाबले शहरों में शिक्षा का स्तर बढ़ा है, इसमें निजी विद्यालयों का प्रमुख भागीदारी रही है, दूसरा कारण बेरोजगारी है, रोजगार के आभाव में हम लोगो को पहाड़ से दूरी बनाने पर मजबूर कर दिया है, रोजगार की तलाश में युवा एक बार निकल पड़ता है तो पहाड़ की तरफ लौटना असंभव सा लगने लगता है, परंतु इन बातों के साथ साथ मुख्य रूप से पहाड़ की कठिन जिंदगी व सुविधाओं का आभाव भी एक कारण है साथ ही आज दिखावा भी एक मुख्य कारक बनता जा रहा है, अगर मेरे पास ऋषिकेश, हरिद्वार, दिल्ली, मुम्बई, कोटद्वार या किसी अन्य शहर में मकान या जमीन नहीं है तो मेरे पास कुछ भी नहीं है शर्म लज्जा की बात हो जाती है दिखावे के कारण हम अपनी पहाड़ की जमीन बेच कर शहरों की तरफ भाग रहे है एक घुटन भरी जिंदगी की और, ना शुद्ध हवा ना शुद्ध पानी। यदि इसी प्रकार पलायन बढ़ता गया तो गाँवों मैं इंसान नहीं जानवर देखने को मिलेंगे, अक्सर कहावत सुनने को मिलती है कि "पहाड़ का पानी और जवानी पहाड़ के काम नहीं आती"। सामाजिक चिंतकों और राजनीतिज्ञों की जुबानी अक्सर उत्तराखंड के पर्वतीय हिस्सों से होते पलायन पर चिंता जताते सुना जाना आम है। इस कहावत की सच्चाई पर कोई शक नहीं है। वाकई पहाड़ी गांवों में रहना बेहद कठिन है। पलायन को लेकर जो भी परिभाषाएं गढ़ी जाती हों, लेकिन हकीकत में इसी कठिन जीवन से मुक्ति का नाम है पलायन।
पहाड़ों से लगातार हो रहे पलायन से गांव के गांव बंजर हो रहे हैं, जो चिंता की बात है। पहाड़ को बचाने के लिए मजबूत नीतियां बनाकर समाज व सरकार को संगठित प्रयास करने होंगे।
शिक्षा, स्वास्थ्य व बेरोजगारी जैसी बुनियादी समस्याओं के चलते पहाड़ों से लगातार पलायन हो रहा है। राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण उत्तराखंड जैसे राज्य में पलायन के चलते गांव के गांव खाली होना, उत्तराखंड सरकार ही नहीं, केंद्र के लिए भी चिंता का मुद्दा होना चाहिए।
पलायन के चलते खाली हो रहे पहाड़ों को भविष्य से लिए दु:खद बताते हुए कहा कि पहाड़ों में जिस तरह बाहरी लोगों का तेजी से प्रवसन हो रहा है, वह दिन दूर नहीं जब ‘पहाड़ी’ पहाड़ में ही अल्पसंख्यक हो जाएगी। यही हालत रहे तो आने वाले दशकों में राज्य का स्वरूप नष्ट हो जाएगा। उत्तराखंड सिर्फ नाम के लिए पहाड़ी राज्य होगा व इसकी स्थिति उत्तर प्रदेश के समान ही हो जाएगी। कारण जनसंख्या के आधार पर होने वाले परिसीमन से पहाड़ से विधानसभा सीटें लगातार घटती जाएंगी व मैदान में यह सीटें बढ़ती रहेंगी।
पलायन पर एक कविता - वरिष्ठ कवी जगदम्बा चमोला जी द्वारा।
कि जो छा यख सब उन्दो जयाँ छन यख सूख्याँऽ मुँगर्यट रह्याँऽ छन यूँ मा भी कुछ उन्दो चल्याँऽ कुछ अब जाणौ तैयार होयाँऽ मैं ममाकोट जयूँ मम्म्वाँऽ यख देखि घऽर मा तौंका ताल़ा लग्या छा मैं समझ्यूँ मेरा नन्ना मऽरीन पर सुण्न मा ऐ स्यि उन्दो जयाँ अब मैयिं तैं त क्या बोल्न उन्दो जाणौ, तौं पर प्हैलि बै पंख लग्याँ अफसोस च बौल़्याऽ ह्वेन स्यि भी,जो चार दिनाऽ मेहमान रह्याँऽ हाल क्या होला अब देखा जखौ-तख स्वीणा यखाऽ सब चूर होयाँऽ छन धन गढ़वाल़ तेरा भी मैं जन अफु से अपड़ा दूर होयाँऽ छन
यनो न समझ्याँ उन्दो ज्यैकीऽ सब नोटों का नौट्याल़ बण्याँऽ छन क्वै मँगणा छन भीख तफुण्ड क्वै पैसाऽ पैथर स्याल़ बण्याँऽ छन सब्बू तैं यनो बोल नि सकदो कि तौ ज्यैऽ तैं लाचार बण्याँऽ तन सौ मा छन द्वी-चार तफुण्ड जो तौ ज्यैकीऽ रौठ्याल़ बण्याँऽ छन निकम्मा पड़्याँऽ छन हम-तुम यख भी गाजि- पाति से मन हटणू च घर-घर मा घ्यू-दूध परागऽ फजल-बख्युनि दिन भर तचणूऽ च सरम नि रह्यैऽ अब मेहनत छोड़ीऽ हम-सब बायाँ हऽड़ पऽड़्या छन नज़र लगींऽ डीलर पर अपणा थौला-रासनकार्ड धऽर्यांऽ अरे क्या च कर्नू अफसोस जखऽ-तख पौ औलादऽ खोण लग्यूँ च पोच्चा लगौणू किरायाऽ कूड़ा पर घऽरऽ आथर च्वोण लग्यूँऽ च उमर लुकौणऽ खातिर तेरा मुण्ड मा म्हेंद्याऽ बाल़ धऽर्यां छन अफु जयूँऽ तक किरायाऽ कूड़ा पर घऽर मा मकड़ाऽ जाल़ लग्याँऽ छन नफरत तुमु से उन्दो मा जख तुम भौतिकता का दास बण्याँऽ धिक्कार च वे जीवन तैं ज्यै मा टट्टी जाणाऽ भी पास बण्याँऽ छन रूखाऽ रेगिस्तान मा ज्यैऽ तुम यफुनाऽ भी सब जिण्ड बण्याँऽ छन शुद्ध हवा जल-जीवन छोड़ीऽ धुवाँरोल़ि मा भुकलिंण्ड बण्याँ छनबऽडा बोल़्ना रैबार बऽडि तैं मैं ज्यूँदो निरभाग रह्यूँऽ छौं मैं मिलणऽ मेरठ मा ऐ मैं चिड़िया घरऽ रिख-बाघ बण्यूँऽ छौं नाति-नत्यणऽ से अलग भितर मैं औणाऽ दिन मैं मंजुल़ा ग्वाड़यूँऽ छौं टट्टी फिरागत स्यऽण-खाण तखि छै म्हैना बिन अँध्यारा धर्यूंऽ कन छा दिन जब गौं बिन ऐऽ तैं खोल़्लि-द्वार अर मोऽर खुलोन छौं छज्जा बिटिन त्वै धौ मारीऽ तैं पुँगड़्यूँऽबिन जब घऽर बुलौंद तू झटपट ऐतैं धर्यैऽ भुज्जी घौरा चौंलूऽ बात बणौदि छै सटपट पीसीऽ लोण भ्यतुली मा काँसैऽ थाल़ीऽ भऽरि खवौंदि छैभूलि नि सकदा तौं दिन तैं जब चैत-चैत्वालीऽ चौकि लगदि छै नाग-सिद्वाऽ मण्डाण लगदा छा पंच्यैति-पाथैऽ जोत जगदि छै नौ दिन तक नौरात्रा अर जख सोल्ह दिनों तक सराध पुजेंदा छा होल़ी अर बग्वाल़ डेल्यूँ मा फूल-फुल्यार्वाऽ गीत सुणेदा छा पण्डौ अर बगड्वाल़ नाचदा भगवति म् बण्ड्यात लगदि छै नन्दा देवीऽ जात दगड़ि जब डाल़ी पैयाँ-पाति सजदि छै यना च रीत-रिवाज कि जौं से हम सबु का जजबात जुड़्याँ छा मुख मोड़ीऽ सब उन्दो चल्याँ अब जिकुड़्यूँ मा इतिहास दब्याँऽ छन
कैल बोल्ये कि यौ ऐऽ कुछ नीऽ यौ ऐ तैंऽ लोग राज कर्नाऽ छन कुल्लि बण्याऽ छन उन्दो मा जख तुम तखा यौ ठेकदार बण्याऽ छन बण्न नीऽ लोग् तब ब्हैर कम्यै तैं भितर अपड़ा आबाद होयाँ अरे अकलाऽ ट्यपु त् हम-तुम छन जो घऽर छोड़ीऽ बरबाद होंयाँऽ यौ बावन गढ़ छन सूना पड़्या यख तुम बिन सब नौन्ह्याल़ हट्याँ जौ भड़ जा बीर बलित छा तौ गौं मा आज डोट्याल़ बस्याँऽ जौ ख्यै-प्यीऽ तैं खेल्ल्यूँ मा दिनभर ब्वै तैं रऽह्दा छा रात पिथौणा तै ओबरा तै बौण्ड डिण्ड्याल़ा मा गग्गु रऽह्दन् अब गात बिट्योणा प्हैलि जन आज नि रह्यै अब तख फुण्ड कन रऽह्दा छा हम भेल्लि लुकौणा संग्ति होंयी सुनताल़ तफुन अब छोरा रऽह्दन् सुद्दि लाठु कुच्योणा ग्वगला रऽह्दन् दोब लग्या अर स्येंटुला रऽह्दन् भिबड़ाट मचौणा छ्येपाड़ा कदन् दन्कादन्कि अर निन्यरा रऽह्दन् चिचड़ाट मचौणा ताल़ा लग्या तौ मोऽराऽ ऐथर द्वारु पर पैथर जाम लग्यूँऽ च आथर टुटीऽ बाँसा रह्याँ उन्द ओबरा भितर तख घाम लयूँऽ च देब्तै कोठड़ी नजर लग्यै तख देब्ता रऽह्दन् सुद्दि माटो बुखौणा सिद्वैऽ चाबक डौंर-थाल़ि अर नरसिंग बाबाऽ चिम्टा दिख्यौणा
कि जो छा यख सब उन्दो जयाँ छन यख सूख्याँऽ मुँगर्यट रह्याँऽ छन यूँ मा भी कुछ उन्दो चल्याँऽ कुछ अब जाणौ तैयार होयाँऽ छन जो छा यख सब उन्दो जयाँ छन यख सूख्याँऽ मुँगर्यट रह्याँऽ छन यूँ मा भी कुछ उन्दो चल्याँऽ कुछ अब जाणौ तैयार होयाँऽ छन
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